ऐसा लगता है पुलिस और सीबीआई जैसी संस्थाएं राजनैतिक भेद-भाव की पूर्ति करने वाली संस्था बन गयी हैं?
आसा राम की गिरफ़्तारी ने पुलिस की कार्यप्रणाली को पूरे देश के सामने ला दिया है| इस गिरफ़्तारी ने बता दिया की इस देश की पुलिस कितने भेदभाव से कम करती है ? पुलिस यदि चाहे तो गैर जमानती वारंट होने पर भी किसी को 10-12 दिनों तक खुला छोड़ सकती है| एक दूसरा उदाहरण मुजफ्फ़रनगर की पुलिस का है जहाँ राजनैतिक आकाओं के हुक्म को पूरा करने के लिए दंगे होने ही दिए| उन दंगों से सबंधित कुछ आरोपियों को तो पकड़ा लिया पर कुछ आरोपियों को नहीं पकड़ा| ठीक दंगों के समय कुछ पकडे गए नामजद आरोपियों को "ऊपर" से आये फ़ोन के कारण छोड़ दिया गया| यह केवल राजनैतिक विद्वेष को ही दर्शाता है| हर मसले पर राजनैतिक रोटियाँ सेकीं जा रही हैं| यह हमारे देश की पुलिस की विचित्र कार्यप्रणाली के दो उदाहरण हैं| पर, अपने देश में पुलिस की ऐसी विचित्र कार्यप्रणाली के इतने मामले मिल जायेंगे कि एक पूरी बाइबिल लिखी जा सके|
अपने इस देश की पुलिस की कार्य कार्य प्रणाली जब ऐसी है तो भारत की सीबीआई और बाकी संबैधानिक संसथानों की कार्य प्रणाली को भी आसानी समझा जा सकता है| कितनी शर्म की बात है की आजादी के 65 से भी ज्यादा सालों बाद हमारे देश में केवल राजनैतिक शत्रु और मित्र के आधार पर ही बड़े से बड़े निर्णय होते हैं| क्या कारण है कि करोड़ों रुपये के चारा घोटाले के अपराधियों को आज तक सजा नहीं मिल पाई है| आय से अधिक संपत्ति के मामलों में भी सालों साल बीत जाने पर कोई नतीजा नहीं निकला है? सीबीआई को सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी तोता ऐसे ही नहीं कहा है| भारतीय पुलिस और सीबीआई जैसी संस्थाओं के पास सरकारी वकील, विशेषज्ञ और सभी तरह के साधन मौजूद हैं| फिर भी न जाने क्यों जब राजनेतिक अपराधियों की बात आती है तो अदालतों में दाखिल होने वाले आरोप-पत्रों, शपथ-पत्रों और अन्य सरकारी दस्तावेजों में कितनी कमियां हो जाती हैं, (या जानबूझ कर रख दी जाती हैं?) जिसके कारण अदालत को याचिका या मुकदमा वापिस लौटाना पड़ता है, या फिर उस मसले पर सख्त टिप्पणी करनी पड़ती है| क्या कारण है कि बड़े से बड़े घोटालेबाज सजा से तो बचे घूम ही रहे हैं और सत्ता-सुख भी भोग रहे हैं?
ताज कोरिडोर का मामला हो, कोलगेट हो, 2G हो, बोफोर्स हो, सेना का जीप घोटाला हो, ताबूत घोटाला हो, राष्ट्रमंडल खेलों के घोटाले हों, सांसदों की खरीद-फरोख्त के मसले हों....और,और और इतने ज्यादा घोटाले की इन घोटालों की भी एक बाइबिल बना सकते हैं, बल्कि कई बाइबिल बना सकते हैं, घोटालों की बाइबिल भाग 1, भाग 2, भाग 3 आदि-आदि अनादि| ऐसे ही कुछ मामलों को तो सीबीआई बंद ही कर देना चाहती है, क्या आप लोगों को यह आश्चर्यजनक नहीं लगता? पर इस देश की गरीब बेचारी जनता कर ही क्या सकती है? अगर आप लोगों के पास इसका कोई जबाब हो तो कृपया आप अपने विचारों से अवगत कराएं (जनता के वोट डालने के अधिकार के अलावा कोई और विकल्प बताएं क्योंकि जनता तो बेचारी कई सालों से वोट डाल ही रही है....) |
यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का शर्मनाक पहेलू ही है कि इस देश पर वो ही लोग शासन करते आये हैं जो केवल अपनी कुर्सी पर बैठे रहना चाहते हैं, भले ही उसके लिए रास्ते से किसी को भी हटना पड़े या किसी को भी अपने साथ मिलाना पड़े| इन राजनेताओं का तो ऐसा मत लगता है कि अगर लाशों पर भी शासन करना पड़े तो करो|
इतने गरीब इतने बेचारे आखिर हम क्यों हैं? शायद हमारे देश के शीर्ष राजनेता चाहते ही नहीं कि हम लोग भी खुशाल हो सकें| वो लोग हमें परेशान और दुखी ही देखना चाहते हैं, अन्यथा उनकी राजनीती चलनी मुश्किल हो जायेगी? अपने देश से छोटे देश अमेरिका और अमेरिका जैसे अन्य छोटे-बड़े दुसरे देशों को देखें, जिन लोगों ने अपनी कार्य प्रणाली में ऐसे बदलाव किये हैं की देख-सुन कर बहुत अच्छा लगता है| फिर हम ऐसे बदलाव क्यों नहीं कर सकते? जितनी बीमार और गली-सड़ी कार्यप्रणाली हमारे देश के संबैधानिक संसथानों की है, उतनी तो शायद ही किसी और देश में देखने को मिले| कहीं और देखने को मिले या ना मिले, हमें ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि हमारे देश में देखने को नहीं मिले, इस के लिए हमें कुछ तो हमें करना ही होगा| अपने बच्चो के प्रति हमारा कुछ तो कर्तव्य है ही ? या फिर हम लोग यूं ही सब छोड़ कर चले जायेंगे? अगर कुछ करना है तो, अभी करना है, अब वक्त बहुत कम है, जितना हम सोचते हैं शायद उससे भी कम|